ads

shlok in sanskrit on vidya (विद्यार्थी के लिए श्लोक)

 

विद्यार्थी के लिए श्लोक



अभिवादनशीलस्य च नित्य वृद्धोपसेविनः|

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

अर्थ- प्रणाम करने और वृद्धों की सेवा करने वाले कि चार चीजें बढ़ती हैं- आयु, विद्या, यश और बल।READ MORE

काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणम्।।

अर्थ- कौवे जैसी फुर्ती, बगुले जैसा ध्यान, कुत्ते की तरह सोना, अल्पाहारी, गृहत्याग करने वाला ये विद्यार्थी के पांच लक्षण हैं।READ MORE

विद्या ददाति विनयं विनयात याति पात्रताम्।
पात्रत्वात धनमवाप्नोति धनात धर्मः ततः सुखम्।।

अर्थ- विद्या विनयं देती है। विनय से योग्यता और योग्यता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख प्राप्त होता है।READ MORE

मातरं पितरं विप्रमाचार्यं चावमन्यते।
स पश्यति फलं तस्य प्रेतराजवशं गतः।।

अर्थ- जो व्यक्ति माता पिता ब्राम्हण और गुरु का अपमान करता है। वह यमराज के वश में होकर उस पाप का फल भोगता है।

पितरौ हि सदा वन्द्यौ न त्यजेदपराधिनौ।
पित्रा बद्धः शुनःशेपो ययाचे पित्रदर्शनम्।।

अर्थ- माता पिता सदा ही पूजनीय हैं। भले ही वे अपराधी क्यों न हों। शुनःशेप को उसके पिता ने यूप में बांध दिया था। फिर भी उसने मुक्ति के बाद पिता के ही दर्शन की इच्छा की।

शान्तितुल्यं तपो नास्ति,
न संतोषात् परं सुखम्।
न तृष्णायाः परो व्याधिः,
न च धर्मो दयापरः।।

अर्थ- शांति के समान कोई तप नहीं है। संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं है। लालच से बढ़कर कोई बीमारी नहीं है और दया से बड़ा कोई धर्म नहीं है।

न हि वैरेण वैराणि, शाम्यन्तीह कदाचन।
अवैरेण तु शाम्यन्ति, एष धर्मः सनातनः।।

अर्थ- शत्रुता कभी भी शत्रुता से शांत नहीं होती। वह प्रेमभाव से ही शांत होती है। यही सत्य और शाश्वत धर्म है।

चंदनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चंद्रमाः।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये, शीतला साधुसंगतिः।।

अर्थ- इस संसार में चंदन शीतल है। चन्द्रमा चंदन से भी शीतल है। सज्जनों की संगति चन्द्रमा और चंदन दोनों से अधिक शीतल है।

न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः,
वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्मः स नो यत्र न सत्यमस्ति,
सत्यं न तद्यच्छलमभ्युपैति।।

अर्थ- वह सभा, सभा नहीं, जिसमें कोई वृद्ध न हो। वे वृद्ध, वृद्ध नहीं, जो धर्म की बात नहीं बोलते। वह धर्म, धर्म नहीं, जिसमें सत्य न हो। वह सत्य, सत्य नहीं, जो कपटपूर्ण हो।

नासत्यवादिनः सख्यं, न पुण्यं न यशो भुवि।
दृश्यते नापि कल्याणं, कालकूटमिवाश्नतः।।

अर्थ- विष पीने वाले व्यक्ति की तरह असत्य बोलने वाले व्यक्ति को न तो मित्रता प्राप्त होती है, न पुण्य, न यश और न ही उसका कल्याण होता है।

शरदि न वर्षति गर्जति,
वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेघः।
नीचो वदति न कुरुते,
न वदति सुजनः करोत्येव।।

अर्थ- शरद ऋतु में बादल गरजता तो है लेकिन बरसता नहीं है। जबकि वर्षा ऋतु में वह गरजता नहीं है केवल बरसता है। इसी तरह बड़बोला आदमी कहता बहुत है किंतु करता कुछ नहीं। जबकि सज्जन कहता तो कुछ नहीं, किंतु करता अवश्य है।

मनसि वचसि काये पुण्यपीयुषपूर्णाः,
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं,
निजह्रदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।

अर्थ- जिनके मन, वचन और शरीर पुन्यरूपी अमृत से भरे हैं। जो अपने उपकारों से तीनों लोकों को तृप्त करते हैं। जो दूसरों के परमाणु जितने छोटे गुणों को भी पर्वत के समान बड़े समझकर अपने हृदय में धारण करते हैं। ऐसे सज्जन संसार में कितने हैं ?

अल्पानामपि वस्तूनां, संहतिः कार्यसाधिका।
तृणेर्गुणत्वमापन्नैः, बध्यन्ते मत्तदन्तिनः।।

अर्थ- छोटी- छोटी वस्तुएं जब प्राप्त होती हैं, तो उनसे बड़े-बड़े काम सिद्ध हो जाते हैं। जैसे रस्सी तिनकों से बनती है और उससे शक्तिशाली हाथी भी बंध जाते हैं।

अथ ये संहता वृक्षाः, सर्वतः सुप्रतिष्ठिताः।
न ते शीघ्रेण वातेन, हन्यंते ह्रोकसंश्रयात।।

अर्थ- जंगल में जो वृक्ष अपनी अपनी जड़ों के द्वारा एक दूसरे से बंधे होते हैं। वे एक साथ जुड़े होने के कारण तेज आंधी से भी नष्ट नहीं होते।

सर्वद्रव्येषु विद्यैव, द्रव्यमाहुरनुत्तमम्।
अहार्यत्वादनघ्र्यत्वाद, अक्षयत्वाच्च सर्वदा।।

अर्थ- सभी संपत्तियों में विद्या ही सर्वोत्तम संपत्ति है। क्योंकि इसे कोई भी छीन नहीं सकता है, न ही इसके लिए कोई मूल्य चुकाने की आवश्यकता होती है। इसका कभी विनाश भी नहीं होता है।

वचस्तत्र प्रयोक्तव्यं , यत्रोक्तं रहते फलम्।
स्थायी भवति चात्यंन्तं , रागः शुक्लपटे तथा।।

अर्थ- वाणी का प्रयोग वहीं करना चाहिए, जहां वह वैसे ही सफल हो जैसे सफेद कपड़े पर लाल रंग अत्यंत पक्का होता है।

ऋषयोः राक्षसीमाहुः, वाचमुन्मत्तदृप्तयोः।
सा योनिः सर्ववैराणां, सा हि लोकस्य निर्ऋतः।।

अर्थ- उन्मत्त और अभिमानी व्यक्ति के वचनों को ऋषिगण राक्षसी वाणी कहते हैं। क्योंकि इस प्रकार की वाणी ही सभी झगड़ों की जड़ होती है। साथ ही संसार के विनाश का कारण भी बनती है।

यस्य कस्य प्रसूतोsपि, गुणवान पूजते नरः।
धनुर्वंश-विशुद्धोपि, निर्गुणः किं करिष्यति।।

अर्थ- मनुष्य कहीं भी, किसी भी कुल में भी पैदा हुआ हो। यदि वह गुणवान है, तभी उसकी पूजा होती है। अच्छे बांस से बना धनुष, यदि डोरी- प्रत्यंचा (गुण) विहीन है। तो वह किसी काम का नहीं होता।

अर्थानामर्जने दुःखम्, अर्जितानां च रक्षणे।
नाशे दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थदुःखभाजनम्।।

अर्थ- धन को अर्जित करने में दुख होता है। अर्जित किये गए धन की रक्षा करने में भी कष्ट होता है। धन के नष्ट होने या खर्च होने पर भी कष्ट होता है। दुख के पात्र इस धन को धिक्कार है।

यं माता पितरौ क्लेशं, सहेते सम्भवे नृणाम्।
न तस्य निष्कृतिः शक्या, कर्तुं वर्षशतैरपि।।

अर्थ- मनुष्य को जन्म देने में माता-पिता जो कष्ट सहते हैं। उस ऋण को सैंकड़ों वर्षों में भी नहीं चुकाया जा सकता।

कामं प्रियानपि प्राणान, विमुञ्चन्ति मनस्विनः।
इच्छन्ति न त्वमित्रेभ्यो, महतीमपि सत्क्रियाम्।।

अर्थ- स्वाभिमानी पुरुष अपने प्राण भले ही त्याग दें। लेकिन अपने दुश्मनों से सम्मान और बड़े से बड़े सत्कार की कामना नहीं करते।

उदेति सविता ताम्रः, ताम्र एवास्तमेति च।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च, महतामेकरूपता।।

अर्थ- सूर्य लाल रंग का ही उदय होता है और लाल रंग का ही अस्त होता है। उसी प्रकार महान पुरुष भी संपत्ति और विपत्ति में एक समान ही व्यवहार करते हैं।

शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः,
यस्तु क्रियावान पुरुषः स विद्वान्।
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां,
न नाममात्रेण करोत्यरोगं।।

अर्थ- शास्त्रों का अध्ययन करके भी लोग मूर्ख रह जाते हैं। विद्वान वही है जो व्यवहारकुशल है। जैसे सही दवा के सेवन से रोगी ठीक होता है न कि दवा का नाम लेने से।

निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।

अर्थ- नीतिनिपुण व्यक्ति चाहे निंदा करे या प्रसंशा, लक्ष्मी आये या चली जाए। मृत्यु आज ही हो जाये या बाद में। धैर्यवान पुरुष के कदम कभी भी न्याय पथ से विचलित नहीं होते।

वश्येन्द्रियं जितात्मानं, धृतदण्डं विकारिषु।
परीक्ष्यकारिणं धीरम्, अत्यंतं श्रीर्निषेवते।।

अर्थ- जिन्होंने इंद्रियों को वश में कर लिया है। जो खुद पर नियंत्रण रखने वाले हैं। दुष्टों को दंडित करने वाले और हर काम को विचारकर करने वाले धीर पुरुषों का लक्ष्मी भी सम्मान करती है।

नास्ति भूमिसमं दानं, नास्ति मातृसमो गुरुः।
नास्ति सत्यसमो धर्मो, नास्ति दानसमो निधिः।।

अर्थ- भूमिदान के समान कोई दान नहीं है। माता के समान कोई गुरु नहीं है। सत्य के जैसा कोई धर्म नहीं है। दान के समान कोई निधि नहीं है।

परनिन्दासु पाण्डित्यं, स्वेषु कार्येष्वनुद्यमः।
प्रद्वेषश्च गुणज्ञेषु, पन्थानो ह्यपदां त्रयः।।

अर्थ- दूसरों की निंदा करने में निपुणता, अपने काम में आलस्य, गुणी व्यक्तियों से द्वेष, ये तीनों ही आपत्ति के मार्ग हैं।

गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति,
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।
आस्वाद्यतोयाः प्रभवन्ति नद्यः,
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः।।

अर्थ- गुणी लोगों की संगति करने पर मनुष्य के गुण गुण ही बने रहते हैं। जबकि गुणहीनों की संगति में वे ही गुण दोष बन जाते हैं। जैसे नदियों का मीठा जल समुद्र में मिल जाने पर पीने लायक नहीं रहता।READ MORE

वरं पर्वतदुर्गेषु, भ्रान्तः वनचरैः सह।
न मूर्खजनसम्पर्कः, सुरेन्द्रभवनेष्वपि।।

अर्थ- जंगली लोगों के साथ वन में भटकना ठीक है। लेकिन मूर्ख व्यक्ति के साथ इंद्र के महल में भी रहना ठीक नहीं है। तात्पर्य यह है कि मूर्खों की संगति उचित नहीं।

न तक्रसेवी व्यथते कदाचित,
न तक्रदग्धाः प्रभवन्ति रोगाः।
यथा सुराणाममृतं प्रधानं,
तथा नराणां भुवि तक्रमाहुः।

अर्थ- तक्र (मट्ठा) का सेवन करने वाला बहुत कम रोग पीड़ित होता है। तक्र के द्वारा नष्ट किये गए उदर रोग फिर उत्पन्न नहीं होते। जिस प्रकार देवताओं के लिए अमृत प्रधान है। उसी प्रकार मनुष्यों के लिए मठ्ठा महत्वपूर्ण है।READ MORE

नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता।।

अर्थ- जंगल में शेर का न तो राज्याभिषेक होता है न ही कोई संस्कार होता है। पराक्रम के बल पर राज्य प्राप्त करने वाले शेर का जंगल का राजा होना स्वतः सिद्ध है।READ MORE

अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति,
प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च,
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च।।

बुद्धिमत्ता, अच्छे कुल में जन्म, इंद्रियों पर संयम, शास्त्रों का ज्ञान, वीरता, मितभाषण, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता। ये आठ गुण मानव के जीवन को उज्जवल करते हैं।READ MORE

अज्ञेभ्यो ग्रन्थिनः श्रेष्ठा, ग्रंथिभ्यो धारिणो वराः।
धारिभ्यो ज्ञानिनः श्रेष्ठा, ज्ञानिभ्यो व्यवसायिनः।।

अर्थ- अनपढ़ों की अपेक्षा पुस्तक पढ़ने वाले श्रेष्ठ हैं। पुस्तक पढ़ने वालों की अपेक्षा अर्थ को धारण करने वाले श्रेष्ठ हैं। ग्रंथों के अर्थ को धारण करने वालों की अपेक्षा ज्ञानी श्रेष्ठ हैं। ज्ञानियों की अपेक्षा अर्थ को क्रियान्वित करने वाले श्रेष्ठ हैं।READ MORE

READ MORE

Post a Comment

0 Comments